राजेश झाला ए.रज़्ज़ाक|
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि की नियत का पता इस बात से लग जाता है कि जहां आम नागरिक को रहने के लिए किराए के भवन 4 फिगर से कम नहीं मिलता अर्थात एक कमरे का किराया जो कच्चा है उसका किराएदार कम से कम 1000 रूपये प्रतिमाह देता है| वहीं हमारे साधन संपन्न जनप्रतिनिधि (विधायक) को सरकारी आवास कम किराए में मिल जाता है| इस प्रकार की और समानता ही नेता और नागरिक में भेद और वैमनस्यता पैदा कर रही है| गरीबों के लिए अधिकांश योजनाओं का बड़ा बजट यूनिसेफ पहन करती है जैसे महिला बाल विकास मंत्रालय स्वास्थ्य मंत्रालय में बहुत बड़ा बजट विदेश से आता है, और हम हिंदुस्तानी के मतों से चुनी हुई सरकार अपने अपने तरीके से राजनीतिकरण कर योजनाएं आम जनता के बीच लाती है| जैसे देश में कुपोषितों के लिए, किशोरियों के लिए, यूनिसेफ 1942 द्वितीय विश्व युद्ध से ही दुनिया भर के निर्धन, बेसहारा, निराश्रितो, असहाय एवं कुपोषित बच्चों के उत्थान के लिए देश में बहुत बड़ी राशि आती है| जिसे आंकड़ों के जादूगर आम जनता को गुमराह कर फोरी, थोथी वाहवाही लूटने के लिए नित नई योजनाएं बनाकर सत्ता में बने रहने के लिए देश की भोली-भाली जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहते हैं| आंगनवाड़ियों को जो मानदेय मिलता है, तथा कन्या से लगाकर किशोरियों, धात्री माताओं, गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली सुविधाओं में कम से कम 50% पैसा यूनिसेफ का रहता है| वही हमारे मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री सहित अन्य जो देश में ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसमें कितनी सच्चाई है यह आम हिंदुस्तानियों को बताने की जिम्मेदारी सच्चे जनप्रतिनिधि की बनती है| लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि, जनता को असली हकीकत कोई भी पार्टी का नेता नहीं बताता है| इस चुनावी मौसम में क्या कांग्रेसी सत्ताधारियों से हिसाब ले पाएंगे|

