रतलाम। राजेश झाला ए. रज़्ज़ाक
पहले मानव आदम से ही मनुष्य मांसाहार करता आ रहा है। समय के साथ मानव ने अपने भोजन में शाकाहार का प्रयोग किया और विभिन्न तरह के व्यंजन बनाकर पेट भरा लेकिन मांसाहार आज भी अधिकतर धर्मों के अनुयायिओं में प्रचलित और जरूरी हिस्सा है। हमारे देश की संस्कृति में पशुबलि प्राचीनकाल से चली आ रही है। सनातन धर्म में देवी-देवताओं के नाम पर पशु बलि आज भी होती है। और अधिकतर लोग मांस का सेवन करते है। धार्मिक कानून उन्हें मना नहीं करता है। इसी तरह क्रिश्चन हो या सिख सभी में मांसाहार होता है। इसी प्रकार यदि इस्लाम में कुर्बानी करके उस हलाल जानवर का मांस खाना कोई नई बात या संस्कृति सभ्यता या किसी कानून के विरूद्ध नही है। अल्लाह ने हमें कुरान में कई जगह खाए जाने वाले जानवरों का जिक्र करके मांसाहार की प्रेरणा दी है। सूर-ए-कौसर में फरमाया कि ऐ नबी तुम नमाज की पाबंदी करो और कुर्बानियां करों और अपने दुश्मनों की चिंता मत करो उसको तो नस्ल ही खत्म हो जाएगी।
लेकिन दुनिया में सभी प्रकार के लोग होते है। आज लोग मांस खाना पसंद नहीं करते वे अपनी इच्छा दुसरों पर थोपने की कोशिश करते है। और कुदरत उन्हें कुछ ताकत और इख्तियार दे देती हैं तो वे दुसरों पर जुल्म करने और मुंह का निवाला छीनने से भी बाज नहीं आ रहे है। और कुछ राजनीति के चमचे अपनी चमचागिरी से अपने झूठे आकाओं को खुश करने के लिए कुरान के मानने वाले होकर भी पशु कि बजाय वैâक काटने की सलाह देते है। वैâक काटना भी तो उन विदेशी अंग्रेजों का तरीका हैं जिन्होंने हमारे भारत को लूटकर खोखला कर दिया। और आज भारत में नफरत का जो माहौल है यह उनकी और आज के उनके पैरोकारों की ही देन है। जो हमारे देश की शांति भंग करने के लिए नित-नए हत्थकण्डे खोजते रहते है। और देश को कमजोर करने में लगे है। स्मरण रहे पिछले वर्ष ईदुल अजहा (बकरीद) पर कुछ शरारतीयों ने जानवर की कुर्बानी के बजाय बकरे के फोटो वाला केक काटा था। मजे कि बात यह हैं कि ये शरारती भी शाकाहारी नहीं है।

