कल्पेश याग्निक का असामायिक निधन ‘असम्भव के विरूद्ध’ है। हवा का स्वभाव है बहना। फिर चाहे बहती हवा में खुशबू हो या गंध, वातावरण में वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराती ही है। जब एहसास होता है अपने-पराये सम्बंधों का, तब भी वातावरण (क्लाइमेट) विषय के अनुरूप ही बनता है। जैसे ही ‘कल्पेश जी नहीं रहे’ की खबर मेरी दृष्टि पटल के समक्ष आई मुझे लगा कि ये तो ‘असम्भव है’। मेरी जिज्ञासा थी, कि आखिर इस ‘असंभव’ के ‘विरूद्ध’ वो कौन सी घटना घटित हो गई, जिस पर काल ने मौत की स्वीकृति दे दी। मेरे शब्द-निःशब्द होते जा रहे थे। जिसकी कलम सदैव गर्जना करती रही, उसकी मौत, मौन स्वरूप में कैसे हो गई..? यह ‘असम्भव के विरूद्ध’ है। सम्पादक राजेश झाला ए. रज़्ज़ाक एवं राष्ट्रीय साप्ताहिक जनवकालत परिवार हृदय से कल्पेश जी के पार्थिव देह को शब्दांजलि अर्पित करता है। तथा उनकी कलम से लिखे विचार भारतीय जनमानस के हृदय में सदैव अंकित रहेंगे।
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