Visitors Views 540

भारतीय समाज को खण्डित करने वाले होश में आये…

नज़रिया

 

घायल जनतंत्र में असहाय जनता का रहबर कोई नहीं

लोकशाही में तानाशाही का घालमेल चरम पर आ गया है। यही कारण है कि भारतीय सिस्टम में कई-कई विसंगतियां पनपने लगी है। नेता अधिकारी मीडिया का गठजोड़ साफ नियत से नही बन रहा है। नैकी-बदी के इस खेल में आमजन पीसा रहा है। वर्तमान में भारतीय राजनीति की नियत में खोट होने से 70 वर्षीय लोकतंत्र लकवाग्रस्त हो गया है। भारतीय मतदाता स्वस्थ्य जनप्रतिनिधि को चुनता है, लेकिन 05 वर्ष की अवधि में वह जनसेवक प्रजातंत्र का न होकर पूंजीपतियों का होने लगता है। जिससे जनतंत्र अस्वस्थ होने लगा है। आज पंच और पार्षद के चुनाव से लगाकर विधायक सांसद सहित अन्य संस्थाओं के चुनाव में पूंंजीपतियों का पैसा लगाया जा रहा है। जो सत्ताधीश मय सुद के धन्यवाद के साथ पूंजीवादियों का यशोगान करते है, जिससे लोकतंत्र की जडे क्रमशः कमजोर हो रही है। यह वैâसा लोकतंत्र नजर आ रहा है, जहां पर हम मानव-मानव में भेद करने लगे है। आज भारतीयसमाज, धर्म-जाति, लिंग, सम्प्रदाय, सहित क्षैत्रवाद में विभक्त होता नजर आ रहा है। हम बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक वाद में फसते नजर आ रहे है। दलित-सवर्ण में मतभेद उभरने लगे है। यहां तक कि महिला एवं पुरूषों में भी हर क्षैत्र में प्रतिद्वंदिता नजर आ रही है। जिससे भारतीय संस्कृति के ताने-बाने टूटने लगे है। कही-कही पाश्चातीकरण हमारी सभ्यता पर अतिक्रमण करने में सफल होती नजर आ रही है। देश की अधिकांश राजनैतिक पार्टीयों का नजरिया लगभग एक समान सा ही है। लगभग सभी दल चुनाव में अपने-अपने प्रत्याक्षी उपरोक्त कसौटी पर खरा उतरने वाले को ही उम्मीद्वार बनाते है। देश के विभिन्न क्षैत्रों में चुनावी वादे व समीकरण अलग-अलग होते है। देश के नैतृत्वकर्ता अलग-अलग प्रान्तों में वही की जनसंख्या, भौगोलिक स्थिति, राजनैतिक चतुरता के मद्देनजर ही अपना प्रतिनिधि खड़ा करते है। जो साम,दाम,दण्ड,भेद का मर्मज्ञ होता है। वही चुनावी ‘वैतरणी’ पार कर जनप्रतिनिधि बन पाता है। और इस प्रकार के प्रयोगों में बैसुमार धन-पूंजीपति खर्च करते है। जिसका फायदा सत्ताधीशों को सब्सिडी देकर, पूंजीपतियों के कर्जे माफ कर, एहसान उतारना पड़ता है। हालांकि लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए बड़ी-बड़ी लोकलुभावनी योजनाओं का भी प्रचार प्रसार किया जाता है। जो कई बार सरकारी फाइलों में ही दम तोड़ देती है। कुछ चुनाव के वक्त योजनाएं सांप के ‘बिल’ से निकलकर तत्काल गरीबों की बस्ती में रेंगने लगती है। और गरीब ‘सपेरे’ की तरह सांप रूपी योजना के अनुरूप बीन बजाने में लग जाते है। कुछ सांप रूपी योजना को पकड़ लेते है। अर्थात् उपरोक्त योजना से लाभ लेने में सफल हो जाते है। तो अधिकांश सांप रूपी योजना को पकड़ने में नाकाम रहते है। कुछ ‘रिश्वत’ सेवा शुल्क देकर सांप को बिल से निकालने में भी सफल हो जाते है। इस प्रकार सांपनाथ-नागनाथ के खेल में मतदाता व्यस्त हो जाते है। और सफेदपोस अपनी कारगुजारी में सफल हो जाते है। लोग लोकसाही में फिर थोड़े समय के लिए तानाशाही भूल जाते है। इस प्रकार देश का जनतंत्र कई-कई तंत्रो-मंत्रों से अभिभूत होकर लड़खड़ाते हुए चलता रहता है। देश के कर्णधार विदेशों में प्रजातंत्र का डीण्ढोरा पीटते है। और हम प्रजातंत्र में पूंंजीवाद की मार से छटपटाते रहते है। आज घायल जनतंत्र को संवारने के लिए सभी देशवासियों को जाति, धर्म, पंथ के फूलों को एकसूत्र में पिरोकर भारतीयसमाज को सुदृढ़ एवं सुसंगठित कर, प्रजातंत्र की नींव को मजबूत करने की आवश्यकता है|

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Visitors Views 540