ए ऱजाक
आजाद देश में अंधविश्वास, आडम्बर के विरूद्ध देशवासियों को अपनी लेखनी से चेताने वाले डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की कलम को 20 अगस्त 2013 को गोली मारकर खामोश कर दिया गया। अतिवादियों की आंखों की किरकिरी बने, डॉ. दाभोलकर को, चरमपंथियों के इशारों पर, काल का ग्रास बनना पड़ा। वैसे तो ‘सच’ को उजागर करना लोकतंत्र का हिस्सा है। लेकिन जब समाज के कुछ जिम्मेदारों का सच सामने आने लगता हैं, तो समाजकंटक अपनी फितरतों से बाज नहीं आते है। हिन्दुस्तान में डॉ. दाभोलकर की लेखनी को आगे बढ़ाने में आज के कुछ कलमकार संकोच करते है। क्योंकि सत्ता का यशोगान करने वाले कलमकारों की फेहरिस्त अब लम्बी हो चली है। आज उन अभागे-अशिक्षित को बौद्धिक देने के लिए बुद्धिजीवी आगे नहीं आ रहे है, क्योंकि अधिकांशों की क्रिमीलेयर के प्रति सदभावना है, जबकि डाऊनट्रोडन को दरबदर की ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। क्या देश में फिर कोई डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर पैदा होगा…? आखिर समानता का अधिकार नागरिकों, को कब मिलेगा…? सत्ता की चाश्नी में लिपटी कुरीतियों से लोकतंत्र को कौन बचायेगा…? भारतीय समाज के अंतिम व्यक्ति तक ‘सच’ का संदेश पहुंचाना ही डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।
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