भारतीय समाज में फैल रही विकृतियों का जिम्मेदार कौन..?

कानूनी डण्डे से नहीं, सामाजिक बंधन से होता है हृदय परिवर्तन…

rajesh Jhala A. Razzak saab

भारतवर्ष के अतित में झांक कर देखे तो आजादी के पहले और स्वतंत्रता के बाद ही राष्ट्र के कई-कई हिस्सों में भारतीय समाज को निर्भिक स्वच्छ एवं स्वस्थ बनाये रखने की परम्परा में एक अशोभनीय पेज भी जुड़ा रहा। जिसका उल्लेख किताबों में भी आया है। जिसे ‘नगर वधू’ नामक खिताब से जाना जाता रहा है। हालांकि तात्कालिन व्यवस्था से, समाज में वर्तमान की तरह हैवानियत, दुष्कर्म जैसी घटनाएं यदा-कदा सुनने-पढ़ने व देखने में आती थी। हमने आधुनिक युग का हवाला देकर, सभ्य समाज से ‘नगर वधु’ जैसे अभिषापित मां-बहन, बेटी को कुकृत्य से बचाने में अपनी पूरी मानवीय ऊर्जा लगाई और आदर्श विवाह की परिपाटी से गृहस्थी में खुशियां दिलाई। लेकिन भारतीय समाज का कड़वा सच यह हैं कि जो अतित में ‘नगर वधू’ हुआ करती थी। वर्तमान में ये कॉल गर्ल के नाम से समाज में जानी-पहचानी जाती है। पहले ‘नगर वधू’ के पास वो तमाम जरूरतमंद जाते थे जो कर्म इन्द्रियों के वशीभूत होकर रति सुख प्राप्त कर पुनः सामान्य जीवन जीने में लग जाते थें। ये वो युवक हुआ करते थेें। जिनका वांछित कारणों से विवाह नही हुआ हो। या बिना पत्नी के अपना जीवन यापन कर रहे हो। बहुतायत में ऐसे पुरूष ‘नगर वधु’ के आश्रम जाकर अपनी उत्तेजना से उपराम्ता पा लिया करते थें। लेकिन आज सभ्य समाज का हवाला देकर, कानूनी डण्डे से डराया जा रहा है। जिससे समाज में विकृतियां तीव्रगति से पनपने लगी है। देश में तरूण वर्ग, युवा वर्ग और अधेड़ अवस्था के लोग पाश्चातीकरण की चकाचौंध में सत्य सनातनी सतोगुण से विरक्त होकर तामसी प्रवृत्ति के आधीन होते जा रहे है। तथा भौतिक विलासिता के चलते कुछ रखूखदार, कुछ नेता, कुछ अधिकारी और कुछ इस प्रकार के व्यक्तियों से जुड़े हुए लोग सेक्स रैकेट चलाने में लिप्त हैं, तो कुछ अन्य तरीके, ईजात कर कामवासना की पूर्ति में लगे हुए है। ऐसे में कुछ पैसे वाले गरीब और जरूरतमंद को मजबूर कर अपनी हवस का शिकार बनाने में सफल होते हैं, तो कुछ अती उत्तेजित व्यक्ति शर्मशार घटनाओं को अंजाम दे डालते है। भारतीय समाज के कई जिम्मेदार सियासतदार तथा कई धर्म की आड़ में देह व्यापार का गंदा खेल, खेल रहे है। जिससे भारतीय समाज की अस्मिता तार-तार हो रही है। आज राष्ट्र के प्रत्येक क्षैत्र के जिम्मेदार चाहे वह सरकारी नौकरी में हो, या चाहे वह प्रायवेट सेक्टर में हों या चाहे वह किसी धर्म विशेष के ज्ञाता हो, या चाहे वह ाqकसी भी राजनैतिक दल का नेता हो। समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री हो, समाजसेवी हो या किसी भी पंथ-जाति का उस्ताद हो, धर्मवैत्ता हो। आज हम सभी को आपस में गहन विचार विमर्श कर भारतीय समाज को सुसंस्कारित, सुसंगठित कर, नर औैर नारी की आपस में अहम की खाई को पाट कर, पुनः स्नेह प्रेम का मजबूत सेतु स्थापित करने की आवश्यकता है। जब तक हम सच्चे रूप में ‘मन-वचन-कर्म’ की शुद्धता को जीवन में नहीं उतारेगें तब तक हमसे हमारा राष्ट्र प्रश्न पर प्रश्न करता ही रहेगा। और हम कभी कानून के रखवालों पर शंका-कुशंका करते रहेंगे तो कभी अन्य को शंका की दृष्टि से देखते रहेंगे। हमें ‘पाप’ से घृणा करना चाहिये, लेकिन ‘पापी’ को परोपकारी बनाने की चुनौती हमें स्वीकार करना चाहिये। आखिर हम अपने आत्मबल और स्वविवेक से कब निर्णय लेंगे..?

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