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असष्णिुता से राष्ट्र की सॉख पर लग रहा बट्टा, धर्म के ठेकेदार मर्यादाओं का रखे ध्यान

Janvakalat NewsBy Janvakalat NewsJune 30, 2018
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rajesh Jhala A. Razzak saab

राजेश झाला ए.ऱजाक (सम्पादक की कलम से)

‘हम मरे तो जग मरे, हमरी मरे बलाये’!
साचे गुरू के बाल को, मरे न मारो जाये’’!!
हिन्दुस्तान की पावन धरा पर कई ऐसे गुरूमुखी साधक हैं, और रहे है। जिन्होंने अपने सदगुरू, पीरो मुरशीद के इल्म-विधा का मानव हित में उपयोग किया। प्रकृति के संरक्षण में सहयोग किया। आज के दौर में कई बाबा, महाराज, मुनी, अपने अगरज विभूतियों की आध्यात्मिक शक्ति का अपने स्वार्थ के चक्कर में क्षरण कर रहे है। जिससे व्यक्ति विशेष चेला, शिष्य कुछ समय के लिए मानव समाज में पूज्यनीय जरूर हो जाते है। लेकिन प्रकृति के प्रतिकुल चलने पर इसी मृत्युलोक में इंसाफ भी होता है, जो हमें आये दिन देखने-सुनने-पढ़ने को मिलता है। उक्त नकारात्मक घटनाओं से मानव समाज पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ रहा है। अध्यात्म शब्द ही व्यापक है अध्यात्म पर किसी विशेष धर्म-पंथ, जाति, लिंग का अधिकार नहीं होता। अपितू पूरी कायनात का दखल अध्यात्म में समाया हुआ है। इस बात को यदि और भी हल्के शब्दों में या सरल भाषा में कहें, तो यह कह सकते हैं कि जड़ चेतन सभी उस परमपिता ईश्वर, अल्लाह की इबादत आराधना के लिए है, और हम सब में वह परमात्मा रमता है। तो फिर हम आपस में छोटे-बडे के भाव रखकर ईष्र्या क्यों उत्पन्न करते है। बस इसी ईष्र्या भाव से मुक्ति पाने के लिए हम सदगुरू पीरो मुरशिद की चौखट पर जाते है। जो हमारे हृदय को कोमल एवं निष्कपट बना देते है। आज कई गृहस्थ आश्रमी कई-कई खानकाह, आश्रमों में अपनी हाजरी देते है। लेकिन कुछ मुट्ठीभर धंधेबाजों की वजह से सीधे सज्जन लोग ठगा जाते है। स्मरण रहे धन, दौलत कृत्रिम अध्यात्म जगत की चकाचौंध में साधारण मानव पंâसता चला जाता है क्योंकि सत्य सनातन के यथार्थ को समझ पाना किसी भी धार्मिक दुकानदारी करने वाले के बस की बात नहीं हैं क्योंकि सदगुरू पीरो मुरशिद वह होता है जो अपने शिष्यों को धर्म के बेटे-बेटी समझे, और स्वयं के खून के रिश्ते से बढ़कर अन्य शिष्यों, चेलो, मुरीदों को समझे। तथा उनकी पीड़ाओं का गठ्ठर स्वयं के सर पर रख, उस ईश्वर, अल्लाह से अपने शिष्यों सहित पूरी दुनिया की भलाई के लिए अरदास, प्रेयर, प्रार्थना, दुआ करें। वही सच्चे सदगुरू के पद के अधिकारी होते है। उच्च कोटी के साधक जो जोग-योग, तप, ध्यान करते हैं वह स्वयं के स्थूल शरीर से सुक्ष्म शरीर में प्रवेश कर प्राकृतिक मंगल यात्रा करते है। ऐसी विभूति कभी मरती नहीं है वह तो नश्वर शरीर का त्याग मात्र करते है। इन्हें अप्राकृतिक मृत्यु का आलिंगन नहीं करना पड़ता है। दुनिया के अधिकांश धार्मिक ग्रंथों में आत्महत्या करना पाप बताया गया है। पूरे जगत में भारतवर्ष ही ऐसी तपोभूमि है जहां आज भी कई विभूतियां अध्यात्म के सौरमण्डल में दैदिप्यमान है। ऐसे में यदि कोई नासमझ अपने व्यक्तिगत मोह के भंवर में अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को ले डुबता हैं तो उसके सदगुरू सहित आध्यात्मिक पूरणमासी पर गृहण लग जाता है। जब ज्ञानइन्द्रियों पर कर्म इन्द्रियां अतिक्रमण करने लगती हैं तो लौकिक सियासतबाजी के भंवर में साधक की साधना का क्षय होने लगता है। फिर वह ज्ञानी इंसान भी मूर्ख के भांति आचरण करने लगता है। फिर वह सतोगुण छोड़ तामसी गुणों का अधिष्ठाता बन धर्म के सहारे व्यापारी बनने लगता है। आज देश में ऐसे कई उदाहरण हैं जो सियासती दांव-पेच के भी गुरू बन गये है। आज कल आध्यात्मिक प्यासी भीड़ को धन-दौलत से प्यास बुझाने के नुस्खे बताये जाने लगे है। अब देश में धार्मिक बनने के लिए भी पैसो की जरूरत है। अतीत में खेत-खलीयान गांव की चौपाल सहित घर-घर जाकर सदगुरू ईश्वर प्राप्ती के गुर सिखाते थें। आज गुर सिखने के लिए अलग-अलग गुरू बनाने पड़ते है। तथा पहले सदगुरू को गृहस्थी, अपनी मर्जी से यथाशक्ति दान-दक्षिणा देते थें। आज के हॉय-प्रोफाइल माहौल में अब गुरूजी के पी.ए. फीस मुकर्रर करते है। तथा वी.आई.पी. और सामान्य से भेंट के लिए भी अलग-अलग समय फिक्स होते है। आखिर मूल्कवासियों का ठगाना कब बंद होगा। पहले कई पंथ भक्ति मार्ग के साधक की अपनी पहचान थी। अब राजनैतिक झण्डे से होने लगी है। पहले सदगुरू शिष्यों के मंगल के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते थे। अब गुरूजी अपने स्टेटस, बंगलों, आश्रमों, गाड़ी-घोड़ो सहित कई भौतिक सुःख-सुविधा के लिए शिष्यों अनुयायियों का सर्वस्व हड़प लेते है। अब कलयुग में शीघ्र ही अदृश्य शक्ति मानव समाज के हितार्थ जगत का भला करने वाली है आमीन…!

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