ट्रेड यूनियनों ने शहीदों को किया याद…
रतलाम | हितेंद्र जोशी
16 जुलाई 1946 रतलाम के इतिहास के इस काले दिन को रतलामी बुजुर्ग आज भी भूल नहीं पाए है। आज भी रूह (आत्मा) कांप जाती है। रतलामी रियासत की जनविरोधी नीतियों की चर्चा करते। देश के कई रियासतों ने अंग्रेजों से हाथ मिला रखे थे। यही कारण रहा कि हिन्दुस्तानियों को आजादी के लिए बहुत अधिक खून बहाना पड़ा। वर्तमान की राजनैतिक पार्टीयों की सियासतबाजी में रियासतों का आज दखल है। रतलामी जनता को 16 जुलाई शहीद दिवस के रूप में मनाना चाहिये और इस घटना को राष्ट्रीय मंच प्रदान करना चाहिये। लेकिन दुर्भाग्य की बात हैं हम अपने रतलामी परिवार के लोगों की सहादत को भूलते जा रहे है। आज केवल कुछ टे्रड युनियन और मुट्ठीभर जागरूक नागरिक ही रियासत की करतूतों के विरोध स्वरूप शहीद चौक पर जाकर अपनों को याद करते है। वो कहां गये, जो रतलाम को ऊंचाईयों और विकास के सपने दिखाते रहते है। इत्तेफाक से प्रदेश के मुख्यमंत्री 16 जुलाई को रतलाम में होने के बावजूद ना तो प्रेसवार्ता में रतलामी शहीदों को याद किया और ना ही शहीद चौक पर आर्शीवाद कार्यक्रम में शहीदों का जिक्र किया। भाषणों में मजदूर गरीबों की बात करने वाले कांग्रेसी-भाजपाईयों ने बूथ स्तर तक रतलामी शहीदों को याद करने की राजनीति नहीं की। राजा, महाराजा, रानी-महारानियों से मिलने वाली मदद बंद होने का डर राजनैतिक पार्टीयों को हमेशा सताता रहता है। पार्टी फण्ड के नाम पर दिखावे के लिए जरूर खास नागरिक, जो इन्ही की पार्टीयों के होते हैं उनकी रसीद काट कर आमजन को घुमराह करते हैं। क्या बेरोजगार महंगाई से तड़पता नागरिक चंदा देने की स्थिति में रहता हैं..?